बाबू गुलाबराय -
एक संक्षिप्त वर्णन
फुल स्लीव शर्ट, धोती, शॉल की गर्दन दोनों घुटनों के ऊपर, फेयर कॉम्प्लेक्शन, सफ़ेद मूंछें, आँखों पर ढीले साधारण चश्मे, चमकते गंजे सिर और एक उभरे हुए माथे, कान और गर्दन के चारों ओर सफ़ेद बालों का ताला, काफी और गंभीर चेहरा शब्दों की पंक्तियों द्वारा खींचा गया व्यक्ति का व्यक्तित्व है, जो एक सादे-नदी की तरह था, जिसने अपना जीवन बदलते हुए भी कभी अपना पाठ्यक्रम नहीं बदला और धीरे-धीरे और निरंतर बहता रहा। वह बाबू गुलाबराय का अमूल्य व्यक्तित्व था। वे हिंदी साहित्य के महान विद्वान थे, जो संस्कृत में पारंगत थे। वह दर्शन और बयानबाजी के साथ अच्छी तरह से बातचीत करता था। वह आसान, कठिन और गंभीर साहित्यिक विषय बनाने में माहिर थे ताकि पाठक उसी का अनुसरण कर सकें।
बाबू गुलाबराय द्विवेदी युग की सांस्कृतिक नैतिक परंपरा का प्रतिनिधित्व करते थे। वह एक आलोचक, शुद्ध निबंधकार और गद्य लेखक सम उत्कृष्टता के रूप में सबसे सभ्य और मिलनसार के रूप में प्रसिद्ध हैं। स्वभाव से, वे एक दार्शनिक थे, जिन्होंने हिंदी साहित्य में अपने निबंधों और आलोचना को एक विशेष स्पर्श दिया। एक तरफ उन्होंने गंभीर सोच के काम किए और दूसरी तरफ; उन्होंने हास्य से भरपूर निबंधों की श्रृंखला का निर्माण किया। दोनों का अपना मूल्य और सुखदता है और अपने संबंधित क्षेत्रों में अद्वितीय हैं।
बाबू गुलाबराय हास्य के अद्वितीय लेखक, एक निपुण निबंधकार, उच्चतम आदेश के गद्य लेखक, दार्शनिक, काफी आलोचक और सफल शिक्षक हैं .. लेकिन इन सबसे ऊपर वह एक बहुत ही उदार संत व्यक्ति थे। दर्शन के एक गंभीर विद्वान होने के बावजूद, मूल विचार में उच्च क्रम और प्रतिभा की बुद्धि के साथ संपन्न। वह उसके पास था और अंतहीन अनुग्रह और सुखदता का प्रवाह कर रहा था। आत्म विश्लेषण में, उन्होंने लिखा है “मेरी आलोचना मक्खन के रूप में मीठी, नरम और सुखद है और चावल और दूध से बना एक व्यंजन है। दोनों के बीच लगभग एक व्यंग्य का एक टुकड़ा मिल सकता है। हालाँकि, मैं स्वार्थी हूँ फिर भी मैं किसी के अच्छे नाम की कीमत पर कोई प्रसिद्धि नहीं चाहता। स्वार्थी होने के बावजूद, मैं मानवतावादी हूं। स्वार्थ और अकर्मण्यता के कारण मैं संकल्प नहीं कर पा रहा हूं। इससे यह स्पष्ट है कि वह कभी किसी का अहित नहीं करना चाहता था और न ही कभी दूसरों का भला करने को तैयार था। बाबूजी हिंदी साहित्य के कई प्रसिद्ध लेखकों को बनाने में सहायक थे।
बाबू गुलाबराय दुनिया के उन बहुत कम लेखकों में से एक हैं जिन्होंने व्यक्तिगत और व्यावसायिक जीवन दोनों में अपनी कमियों का वर्णन करने का साहस किया। उनकी पुस्तक "मेरे असाफुल्तेयीन" (मेरी कमियाँ) इस संबंध में एक मास्टर पीस रचना है। इस पुस्तक में उन्होंने अपनी सफलता के Look रहस्य ’का कितना अच्छा वर्णन किया है, देखिए:
“मैं संक्षेप में कह सकता हूं कि मुझे साहित्यिक चोरी की कला में महारत हासिल है। मैं अन्य लोगों के रत्नों को उनके ताले को तोड़े बिना उठाता हूं। ये रत्न अपने स्वयं के प्रकाश से चमकते हैं। लेकिन मैं इन रत्नों को उनके मूल रूप में बिक्री के लिए बाजार में नहीं ले जाता। मैं उन्हें ट्रिम करता हूं और उन्हें पॉलिश करता हूं, ताकि वे पहचान न सकें। इस प्रक्रिया में वे थोड़ा विकृत हो सकते हैं। मेरी साहित्यिक चोरी का अब तक पता नहीं चला है; और यही मेरे जीवन का रहस्य है। मैंने सुना है कि चोरी की कला पर संस्कृत में कई किताबें हैं- भौतिक चोरी या साहित्यिक चोरी (साहित्यिक चोरी) ”
बाबू गुलाबराय का अपना पैतृक घर जलेसर उत्तर प्रदेश में था। लेकिन उनका जन्म इटावा (U.P.) में हुआ था, जहाँ उनके अत्यधिक धार्मिक पिता बाबू भवानी प्रसाद स्थानीय न्यायालयों में कार्यरत थे। उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा मैनपुरी (U.P) और उच्च शिक्षा आगरा कॉलेज और सेंट जॉन्स कॉलेज, दोनों आगरा [B.A.1911, M.A. (दर्शनशास्त्र) 1913 और LLB 1917] में प्राप्त की और उस समय इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध थे। अपनी शिक्षा पूरी करने के तुरंत बाद, उन्हें शुरू में छतरपुर (मध्य प्रदेश) के महाराजा के दार्शनिक साथी के रूप में नियुक्त किया गया था - महामहिम विश्वनाथ सिंह जूदेव और बाद में महाराजा, दीवान (प्रधान मंत्री) और उन्हें निजी सचिव की महत्वपूर्ण नौकरियां दी गईं। जज। उन्होंने 1932 तक वहां काम किया। इसके बाद, वह आगरा वापस आ गए और जैन बोर्डिंग हाउस में रहे और सेंट जॉन्स कॉलेज, आगरा में हिंदी के एक मानद प्रोफेसर के रूप में काम किया। उनकी पुस्तक शांति धर्म 1913 की शुरुआत में प्रकाशित हुई थी। लेखन की प्रक्रिया जारी रही। 1963 में अपनी मृत्यु तक 50 वर्षों तक बिना ब्रेक के। उन्हें वर्ष 1957 में आगरा विश्वविद्यालय द्वारा मानद डी। लिट से सम्मानित किया गया। यह तत्कालीन उपराष्ट्रपति माननीय वीवी गिरि जी (जो बाद में भारत के चौथे राष्ट्रपति बने) द्वारा प्रस्तुत किया गया था। वर्ष 2002 में, तत्कालीन प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी ने उनकी स्मृति में 5 रुपये का डाक टिकट जारी किया।
कविता की परंपराओं को पढ़ने और सामाजिक कार्यों का अध्ययन करने के बाद, उन्होंने सिद्धांतों के रूप में व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर अपने निष्कर्ष प्रस्तुत किए। बाबूजी की विचार प्रक्रिया के साथ उनके दर्शन उनकी पुस्तकों में उपलब्ध हैं। सिद्धान्त और ज्ञान, काव्य रूप, नवार्ष,, अधन और आसवेद, साहित्य समिक्षा, हिन्दी नाट्य विमर्ष और हिन्दी साहित्य का सुबोध इतिहस। इन पुस्तकों में बाबूजी हमारे सामने सिद्धांतों के प्रतिपादक के रूप में आते हैं और जो स्पष्ट रूप से समझाने वाली चीजों में विश्वास करते हैं। कुछ अन्य पुस्तकें उनके आदर्शों, विचारों, विचार प्रक्रिया और कार्य के क्षेत्रों को दर्शाती हैं। जीवन रश्मियन, मेरे निबन्ध, मेरी असफाल्टीन, कुच उथले कुच गह्रे, राष्ट्रत्रय, अभिनव भारत के प्रकाश स्तम्भ, सत्य उद्भव स्वातंत्ररता के उपासक, भारतीय संस्कृत के रूपरेखा और मन की बात।
उनकी सोचने की शैली, चिंतन, अध्ययन और प्रस्तुति विशुद्ध रूप से ya भारतीय ’(भारतीय) है। इसलिए, उनके सिद्धांतों में बल, शक्ति और ऊर्जा है। हिंदी निबंध और आलोचना की पुनर्व्याख्या के क्षेत्र में, बाबूजी का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण और अद्वितीय है। बाबू गुलाबराय की पूरी साहित्यिक कृति उनके गहरे अहसास, साहित्यकार के लिए शाश्वत प्रेम और उनके पेशे के प्रति समर्पण की अभिव्यक्ति है। वह कलम से रहते थे, मूल विचारों से समृद्ध और लेखन की कला में विशिष्ट रूप से सक्षम थे। बाबू गुलाबराय के पास एक संपादक के रूप में भी एक अनुकरणीय क्षमता थी, जिसे उस समय के हिंदी साहित्य की एक उच्चस्तरीय मासिक पत्रिका ity साहित्य संध्या ’के प्रकाशन के साथ देखा जा सकता था। इसका पहला अंक जुलाई 1937 में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के आशीर्वाद से प्रकाशित हुआ था।
बाबूजी का मन और दिल गांधीवादी नैतिकता से बहुत प्रभावित था। गांधीजी के गैर-नैतिक नैतिक मूल्यों ने बाबूजी को ol समंवय ’(समन्वय) की शैली को अपनाया। अचय्या नंद दुलारे वाजपई के शब्दों में, बाबूजी सद्भाव के अनुयायी थे जो उनके सभी साहित्यिक कार्यों में मौजूद थे। किसी भी स्रोत से अच्छे बिंदुओं को स्वीकार करना बाबूजी का एक और अनूठा गुण था। संक्षेप में वाजपई लिखते हैं- "यदि गुणवत्ता पकड़ने वाले रूपक का उपयोग साहित्य के किसी भी व्यक्ति के लिए किया जा सकता है, तो यह बाबूजी होना चाहिए"।
वास्तव में, बाबूजी को उनके सहानुभूतिपूर्ण स्वभाव, उदारता, समन्वय और मिलनसार स्वभाव के लिए 20 वीं शताब्दी के हिंदी लेखक के रूप में सम्मानित और सम्मानित किया जाता है। द्विवेदी काल की शैली में अधिकांश आधुनिक विचारों की स्थापना के लिए हिंदी साहित्य में बाबू गुलाबराय का अपार योगदान निर्विवाद है।
बाबू गुलाबराय -
व्यक्तित्व एवं कृतित्व
आधुनिक हिंदी गद्य के उन्नयनकों में बाबू गुलाबराय का प्रमुख स्थान है । इन्होने हिंदी भाषा एवं साहित्य को समृद्ध करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है । बाबूजी के साहित्यिक कृतित्व के कई रूप हैं -काव्यशास्त्रकार व्यवहारिक आलोचक, ललित और गंभीर निबंधकार शास्त्रकार आदि।
बाबू गुलाबराय हिन्दी साहित्य के एक ऐसे प्रकाश पुंज थे जिनके दिव्य आलोक से न केवल आगरा मंडल अपितु हिन्दी जगत दैदीप्यमान होता रहा। उनकी साहित्य साधना उनके विराट व्यक्तित्व की साकार अभिव्यक्ति है।
बाबू गुलाबराय बहुज्ञ, किन्तु अति विनम्र थे। इससे भी अधिक वे सह्दय मानव थेऔर मानव जीवन की समग्रता अपने में समेटेहुए थे। उनकी कृतियों द्वारा कोई उन्हे श्रेष्ठ समीक्षक, अप्रतिम, निबंधकार, दार्शनिक, अध्यापक एवं सुयोग्य संपादक बताना चाहता है। नि:संदेह उनमे ये सभी गुण विद्यमान थे।उन्होंने अपने रचना संसार द्वारा जीवन के भोगेहुए अनुभव को बड़े ही सहज ढंग से व्यक्त कर दियाहै। यही कारण है कि उनकी रचनाएं पढ़कर जहां सह्दय पाठक आत्मविभोर होजाताहै, वही उनसे वह अपना मार्गदर्शन भी ग्रहण करता है। इस प्रकार बाबूजी का साहित्य समग्रता का संदेशवाहक बनकर आया है और उनकी यही विशेषता अन्य साहित्यकारों से उनकी अलग पहचान बनाती है।
इटावामें जन्मे , आगरा कर्म भूमि
बाबू गुलाबराय का जन्म 17 जनवरी, 1888 तद्नुसार माघकृष्ण चतुर्थी संवत् 1944 को इटावा में हुआ था। वे अपना जन्म दिवस वसंत पंचमी से एक दिन पूर्व मनाते थे । उनकी प्रारम्भिक शिक्षा मैनपुरी में हुई। उच्च शिक्षा ग्रहण करने हेतु आगरा में आए। 1913 में सैन्ट जॉन्स कॉलेज (तत्समय इलाहाबाद विश्वविधालय से सम्बद्ध ) से एम.ए. (दर्शनशास्त्र), तथा 1917 में आगरा कॉलेज (तत्समय इलाहाबाद विश्वविधालय से सम्बद्ध) से एल.एल.बी. करने के पश्चात छतरपुर राज्य के महाराजा श्री विश्वनाथ सिंह जूदेव बहादुर के दार्शनिक सलाहकार, निजी सिचव, दीवान एवं मुख्य न्यायाधीश के रूप में 18 वर्ष तक कार्य किया। छतरपुर से अवकाश ग्रहण करने के पश्चात उन्होंने आगरा को ही अपनी कर्म भूमि बनाया। आगरा में आकर सबसे पहले वे जैन बोर्डिंग स्कूल के वार्डेन बने। तत्पश्चात सन् 1934 में वेसैन्ट जॉन कॉलेज में हिन्दी के अवैतिनक अध्यापक बने। सन् 1935 से उन्होंने ‘साहित्य संदेश’ नामक पत्रिका का संपादन किया । इस पत्रिका के माध्यम से बाबूजी ने उस समय हिन्दी विषय की उच्च कक्षाओं के विद्यार्थियों, अध्यापकों एवं शोधार्थियों का मागदर्शन किया । उन्होंने ‘शांतिधर्म’ नामक कृति की रचना सन् 1913 में की, तब से लेकर जीवन पर्यंत वे लेखन में रत रहे। उन्होंने हिन्दी साहित्य में दर्शन, निबंध, आलेाचना आदि विविध विधाओं पर अनवरत लेखनी चलाकर हिन्दी वाड्मंय को लगभग 50 ग्रंथ प्रदान किए ।
सत्यम्, शिवम् और सुंदरम् का समावेश
बाबूजी के साहित्य की एक विशेषता, उसमें सत्यम्, शिवम् और सुंदरम् का समावेश है। बाबूजी ने जो कुछ व्यकत किया है वह बड़ी ही सहजता एवं ईमानदारी से। उनके साहित्य में सत्यानुभूतियों के ही चित्रण हुए हैं पर उनकी ये अनुभूमियाँ मानव को शिवम का मार्ग दर्शाती हैं और कालांतर में उसमें सुंदरम् के भी दर्शन होने लगते हैं।
मानवतावादी स्वर का समावेश
उनकी कृतियों में हमें मानवता वादी स्वर स्पष्ट सुनाई देता है। उन्होंने एक सच्चे मानव की कल्पना की है और सच्चा मानव कोई तभी बन सकता है जब उसमें उदात्त जीवन मूल्य हों। उदात्त जीवनमूल्यों के अभाव में तो मानव अपना देव दुर्लभ तन नरक तुल्य बनाया करता है।
हिन्दी के अनन्य सेवक
बाबू गुलाबराय ने उस युग में हिन्दी की सेवा की है जब तत्कालीन शासकों द्वारा उसे वरनाक्युलर लैंग्वेज अर्थात देशीया गँवारू भाषा का दर्जा दिया गया था। उसे तत्कालीन शासक जनता की बोलचाल की भाषा तो मानते थे पर वे उसे समुचित आदर नही देते थे। बाबूजी तथा उन्ही के सदृश्य अन्य सरस्वती के साधकों ने अनवरत एवं अथक साधना कर के हिन्दी को उच्च एवं सम्मानीय स्थान दिलाया। बाबू गुलाबराय में हिन्दी के प्रति विशेष लगाव था। यद्यपि छात्रावस्था में उन्होंने हिन्दी विषय का अध्ययन नहीं किया था I स्नातक स्तर उन्होंने अंग्रेजी के साथ संस्कृत एवं दर्शन शास्त्र (फिलोसोफी) विषयों का अध्यन किया तथा एम.ए. की उच्च परीक्षा भी उन्होंने दर्शन शास्त्र से ही उत्तीर्ण की। ततपश्चात क़ानून की शिक्षा ग्रहण की। शिक्षा-दीक्षा की समाप्ति के पश्चात राजसी वातावरण में कार्य करना आरंभ करदिया। राजसी वातावरण में भी चर्चा के विषय अधिकांशतः दर्शन शास्त्र से ही संबंधित रहते थे। उनके लेखन का आरंभ भी दर्शन शास्त्रसे ही हुआ। ‘तर्क शास्त्र’ (1916 ) तथा ‘पाश्चात्य दर्शन का इतिहास (1918 ) उनकी प्रारंभिक कृतियां रही हैं I इतना सब होते हुए भी उनमें हिन्दी के प्रति विशेष लगाव था और इसी कारण उन्होंने दर्शन शास्त्र आदि का प्रणयन हिन्दी में ही किया । उन्होंने अपने विषय में स्वयं कहा है “मेरा प्रारम्भिक जीवन दार्शनिक का रहा फिर दर्शन शास्त्र की लाठी के सहारे साहित्य में प्रवेश किया” ।
ज्ञान के अक्षय कोष
बाबू गुलाबराय ज्ञान के अक्षय कोष थे। जीवनपर्यंत साहित्य साधना में जुटे रहने वाले इस महान साहित्यकार ने सन् 1913 में ‘शांतिधर्म’ तथा ‘मैत्रीधर्म’ नामक कृतियों से साहित्य संसार में पदार्पण किया और मृत्यु से एक वर्ष पूर्व अर्थात सन् 1962 में ‘जीवन रशमियाँ’, ‘निबंध माला’ और ‘सांस्कृतिक जीवन’ नामक कृतियां लिखकर विराम लिया। लगभग पचास वर्ष की सुदीर्घ अवधि में उन्होंने पचास से अधिक कृतियां प्रस्तुत की।
हिन्दी साहित्य के अतिरिक्त अन्य विषयों यथा ‘कर्तव्य शास्त्र’ (1915) ‘तर्क शास्त्र’ (1916), ‘पाश्चात्यदर्शन का इतिहास’ (1918), ‘बौद्ध धर्म’ (1930), ‘विज्ञानवार्ता’ (1936), ‘विज्ञान विनोद’ 1937’ पर भी अपनी लेखनी चलाकर सरस्वती के अक्षय भंडार को समृद्ध किया है। साहित्यिक कृतियों में आपने ‘नवरस’ ( 1953), ‘हिन्दी नाट्य विमर्श’(
1938), ‘हिन्दी साहित्य का सुबोध इतिहास’ (1940), ‘सिद्धांत और अध्ययन’ (1938), ‘काव्य के रूप’ ( 1946), ‘हिन्दी काव्य विमर्श’ ( 1946) ‘हिन्दी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास’ (1953), ‘आलोचना कुसुमांजलि’ (1948), ‘रहस्यवाद और हिन्दी कविता (1953), और ‘हिन्दी गद्य का विकास और प्रमुख शैलीकार’ (1958) आदि का सृजन किया है।
दार्शनिक
बाबू गुलाबराय जी का दार्शनिक के रूपमें भी इतना ही सम्मान था जितना कि सुधी समीक्षक एवं साहित्यकार के रूप में । तत्कालीन छतरपुर के महाराजा सर विश्वनाथ सिंह जूदेव साहित्यकार एवं दार्शनिक अभिरुचि के शासक थे ।अतः उन्होंने अपने यहां के लिए दर्शन शास्त्र के एक सहयोगी की नियक्ति की विज्ञापन दी पायनियर समाचारपत्र में निकाला और वही विज्ञापन बाबू गुलाबराय को छतरपुर राज्य से जोड़ने में सहायक हुआ । बाबूजी के छतरपुर राज्य में नियुक्ति हो जाने पर नित्य प्रति महाराजा के साथ सन्त समागम एवं भगवत चर्चा का वातावरण गहमाने लगा । छतरपुर महाराज की गुणग्राहकता के कारण देश विदेश के प्रायः सभी संप्रदायों के संत एवं विद्वान वहां आते रहते थे। इसी समय बाबू गुलाबराय द्वारा सृजित ग्रंथ ‘तर्क शास्त्र’ (तीनभाग, प्रकाशन वर्ष 1916) ने हिन्दी में दर्शन शास्त्र के लिए भूमि प्रस्तुत की।
श्रेष्ठ निबन्धकार
बाबूजी मूलतः निबन्धकार थे। उनके निबंधों में विचारों की सुगमता एवं चरमोत्कर्ष, शैली का वैशिष्ट्य एवं भाषा का प्रवाह देखा जा सकता है। उनका निबन्ध लेखन बहुआयामी है। उनके लगभग एक दर्जन निबंध संग्रह प्रकाशित हुए हैं जिनमें ‘प्रबंध प्रभाकर’ (1933), ‘निबन्धरत्नाकर’ (1934), ‘कुछ उथले कुछ गहरे’ (1955), ‘मेरे निबंध’ (1955), ‘अध्ययन और आस्वाद’ (1956), ‘जीवन रश्मियां’ (1962), ‘निबंध माला’ (1962) आदि प्रमुख हैं । इन निबंधों में भावोष्णता और नवीनता के अतिरिक्त सोया हुआ कवि भी प्रायः बोला करता है। पंडित प्रवचन करता दिखाई देताहै। कभी-कभी उपदेश कभी बीच-बीच में आजाता है। साहित्यक सौष्ठव तो उनमें आद्यन्त रहता ही है क्योंकि ये निबंध प्रायः स्वांतः सुखाय हैं । ये शुद्ध निबंध निर्मल मानस की तरंग के समान हैं जिन्हे पढ़कर पाठक के हृदय कमल खिल उठते हैं । ‘मेरी असफलताएं’ नामक कृति में बाबूजी ने अपनी सफलताओं का साधिकार वर्णन करने की अपेक्षा अपनी असफलताओं का वर्णन विनम्र भाव से किया है ।
शिष्ट हास्य व्यंग्यकार
बाबूजी ने अपने निबंधों में शिष्ट हास्य एवं व्यंग्य को भी स्थान दिया है। पर इस विधा द्वारा वे अपने पर ज्यादा हंसे हैं, दूसरों पर कम। ‘एक बानगी प्रस्तुत है- “मैं दावत देने वालों का विशेष रूप से आभारी रहता हूँ और निमंत्रणों से लाभ उठाने की भरसक कोशिश करताहूँ । यातायात का कष्ट (विशेषकर जब दावत निशाचरी अर्थात रात की हो ) अखरता है, किन्तु रसना का ब्रह्मानन्द और काव्यानन्द सहोदर आस्वाद उस क्षति की पूर्ति कर देता है। ईश्वर की दया से पेट की पाचन शक्ति तो न ही, जिह्वा की आस्वाद शक्ति अक्षुण्ण बनी हुई है । प्रीतिभोजों में परोसे हुए मिष्ठानों का सुरिभत सौन्दर्य तथा पापड़ी मा मर्मर संगीत एवं आइसक्रीम का स्निग्ध माधुर्य आज भी मुझे आकर्षित करता है। दावतों में उदर और जिह्वा का अंतर्द्वंद्व उपस्थित हो जाता है। मैं भोजन भट्ट अवश्य हूँ किन्तु स्वास्थ्य भीरु भी हूँ। ‘मां शरीरेषु दयां कुरु’ का पक्षपाती नही।”
लोकोक्तियों एवं मुहावरों के रोचक प्रयोगकर्ता
बाबूजी ने लोकोक्तियों एवं मुहावरों का नये परिवेश में बड़ा ही रोचक प्रयोग किया है। कतिपय उदाहरण प्रस्तुत हैं -
(1) “सब लोग नेता नहीं हो सकते क्योंकि यदि सब ही नेता बन जाएं तो ‘नाउओं की बारात में ठाकुर ही ठाकुर चिलम भरने कौन जाए’ की समस्या उपस्थित हो जायेगी ।“
(2) “मेरा उस साधु का सा हाल था जिसने कम्बल के धोखे तैरते हुए रीछ को पकड़ लिया था फिर वह उस कम्बल को छोड़ना चाहता था लेकिन कम्बल उसे नहीं छोड़ता।”
(3) “साइकिल के वे इतने सिद्धपग थे कि दिन भर में मेरठ पहुँच जाते थे ।”
सहज व्यक्तित्व
बाबूजी संत स्वभाव के, मृदु एवं अल्पभाषी थे। सत्यकी डगर पर चलने वाले, परिछिद्रान्वेषण से दूर रहने वाले, दूसरों को चाहे वह कितना ही छोटा हो (पद या वय में) उचित आदर देने वाले, अहंकार से दूर, दूसरों के दुख में दुखी तथा परम संतोषी स्वभाव के थे ।
विनम्रता की साक्षात्मूर्ति
बहुज्ञ एवं बहु अधीत होते हुए भी वे आजकल के पल्लवग्राही विद्वानों के सदृश बरसाती मेढ़क बन कर कभी भी नहीं फुदकते थे। उन्होंने अपनी विद्वता के अहं को कहीं भी नहीं बखाना है । वे ‘विद्या ददाति विनयं’ के जीवन्त उदाहरण थे। दर्शन शास्त्र, तर्क शास्त्र, मनोविज्ञान, इतिहास, पुराण, वैद्यक, विज्ञान, नीति , धर्म आदि के निष्णात्
पंडित थे। उनकी रचनाएं उनकी इस बहुज्ञता की प्रमाण हैं पर वे जितने बहुज्ञ एवं बहु अधीत थे, उतने ही विनम्र। संभवतः गोस्वामी तुलसीदास ने ऐसे ही विनम्र विद्वानों को देखकर कहा होगा- ‘बरसिहंजलदभूमि नियराये।यथा नविहं बुध विद्या पाये’।
लेखन एवं ज्ञान के प्रति पूर्ण ईमानदारी
बाबू गुलाबरायजी श्रेष्ठ निबंधकार, प्रतिष्ठित समीक्षक एवं साहित्यकार थे। वे सारग्रही, समन्यवादी, समग्रता के संदेश वाहक थे। इतना सब कुछ होते हुए भी वे अपने लेखन एवं ज्ञान के प्रति पूर्ण ईमानदार थे। उन्होंने अपने विषय में लिखाहै-
1. “मुझे अपने मिडियोकेर होने पर गर्व है।”
2. ”लेखक भी मैं ठोक पीट कर ही बना हूँ। प्रतिभा अवश्य है परन्तु एक तिहाई से अधिक नहीं I मेरे लेखन में दो तिहाई परिश्रम और चोरी रहती है। मुझमें पांडित्य चाहे हो किन्तु गहराई नहीं है, यथार्थता और निश्छलता से तो और भी कम । किन्तु मैं इस कमी को सफलतापूर्वक छिपा लेता हूँ।“
3. “कुछ पुस्तकें स्वांतः सुखाय लिखीं, शेष पुस्तकों का अधिकांश में ‘उदर निमित्त’ ही निर्माण हुआ।“
बाबू गुलाबराय के प्रति श्रेष्ठ साहित्यकारों के विचार
“पहली ही भेंट में उनके प्रति मेरे मन में आदर उत्पन्न हुआ था, वह निरंतर बढ़ता ही गया। उनमें दार्शनिकता की गंभीरता थी परन्तु वे शुष्क नहीं थे, उनमें हास्य-विनोद पर्याप्त मात्रा में था, किन्तु यह बड़ी बात थी कि औरों पर नहीं अपने ऊपर हँस लेते थे।” - राष्ट्रकवि मैथिलीशरणगुप्त
"बाबूजी ने हिन्दी के क्षेत्र में जो बहुमुखी कार्य किया, वह स्वयं अपना प्रमाण आप है। प्रशंसा नही, वस्तुस्थिति है कि उनके चिंतन, मनन और गम्भीर अध्ययन के रक्त निर्मित गारे से हिन्दी-भारती के मंदिर का बहुत-सा भाग प्रस्तुत हो सका है।”- पं. उदयशंकर भट्ट
"आदरणीय भाई बाबू गुलाबराय जी हिन्दी के उन साधक पुत्रों में से थे, जिनके जीवन और साहित्य में कोई अन्तर नहीं रहा । तप उनका सम्बल और सत्य स्वभाव बन गया था । उन जैसे निष्ठावान्, सरल और जागरुक साहित्यकार विरले ही मिलेंगे। उन्होंने अपने जीवन की सारी अग्नि परीक्षाएं हँसते-हँसते पार की थी । उनका साहित्य सदैव नई पीढ़ी के लिए प्रेरक बना रहेगा।“ - महादेवीवर्मा
"गुलाबराय जी आदर्श और मर्यादावादी पद्धति के दृढ़ समालोचक थे। भारतीय कवि-कर्म का उन्हे भलीभांति बोध था। विवेचना का जो दीपक वे जला गये उसमें उनके अन्य सहकर्मी बराबर तेल देते चले जा रहे हैं और उसकी लौ और प्रखर होती जा रही है। हम जो अनुभव करते हैं – जो अस्वादन करते हैं वही हमारा जीवन हैं । -पं. लक्ष्मी नारायणमिश्र
”अपनेमें खायेहुए, दुनिया को अधखुली आँखों से देखते हुए, प्रकाशकों को साहित्य आलंब, साहित्यकारों को हास्य रस के आलंबन, ललित-निबंधकार, बड़ो के बंधु और छोटों के सखा बाबू गुलाबराय को शत्प्रणाम।“ - डॉ. रामनिवास शर्मा
“बाबू गुलाबराय उन आलचकों में से थे जिनसे कोई भी अप्रसन्न नहीं था इस कारणउन्हे “अजातशत्रु” की संज्ञा दी जा सकती है। वे हिन्दी के पहली पीढ़ी के आचार्य के अग्रणीय थे।“- डॉ. नामवरसिंह
साहित्यकारों के मार्गदर्शक
बाबूजी अनेक साहित्यकारों के मार्गदर्शक रहे हैं। गोपाल प्रसाद व्यास ने बाबूजी के विषयमें कहा है- ‘वह समय के सारथी थे । अपने रथ पर बैठाकर उन्होंने मुझ जैसे अनेक नवयुवकों को अपनी मंजिल तक पहुँचने में सहायता की थी। वह स्वयं समय के साथ चले। लोगों को समय के साथ चलने की प्रेरणा दी।’
बाबू गुलाबराय का कृतित्व
दर्शन :
शांति धर्म, मैत्री धर्म, कर्तव्य शास्त्र, तर्क शास्त्र (तीनभाग), पाश्चात्य दर्शनों का इतिहास, बौद्ध धर्म, भारतीय संस्कृति की रूपरेखा, गाँधीय मार्ग , मन की बातें।
समीक्षा :
नवरस, हिन्दी नाट्य विमर्श, हिन्दी साहित्य का सुबोध इतिहास, हिन्दी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, सिद्धांत और अध्ययन, काव्य के रूप, हिन्दी काव्य-विमर्श, साहित्य –समीक्षा, आलोचना कुसुमांजलि, रहस्यवाद और हिन्दी कविता, हिन्दी गद्य का विकास और प्रमुख शैलीकार।
आत्म जीवनी एवंअन्य जीविनयाँ:
मेरी असफलताएँ, जीवनपथ, अभिनव भारत के प्रकाश स्तम्भ, सत्य और स्वतंत्रता के उपासक।
प्रकीर्ण :
फिर निराशा क्यूँ?, ठलुआक्लब, विज्ञानवार्ता, विज्ञान विनोद, विद्यार्थी जीवन।
निबंध संकलन :
प्रबंध प्रभाकर, निबंध रत्नाकार, कुछ उथले कुछ गहरे, मेरे निबंध, अध्ययन औरआस्वाद, राष्ट्रीयता, जीवन रश्मियाँ, निबंधमाला।
संपादित :
भाषाभूषण, सत्य हरिशचंद, प्रसादजी की कला, आलोचक रामचंद्र शुक्ल, युगधारा।
संचयनः
गद्य प्रभा, हिन्दी गद्य निचय, सांस्कृतिक जीवन, बालशिक्षा निबंधमाला- भाग 4।
बाबूजी पर रचनाएंI
बाबू गुलाबराय जी की जीवनी की झलक-2002, बाबू गुलाबराय की हास्य व्यंग्य रचनाएँ-2004, बाबू गुलाबराय व्यक्तित्व और कृतित्व (संस्मरण)- 2004, मेरे मानिसक उपादान- 2006, पत्रों के दर्पण में बाबू गुलाबराय-2008, बाबू गुलाबराय के विविध निबंध- 2011